Saturday, July 8, 2017

दिक्कत

हर एक मन में दंगा है
ज़िंदा रहने का पंगा है
गुस्सैल मुखोटो के अंदर
हर एक बंदा नंगा है

अंदर ही अंदर उबल उबल
अब शक्लें भी बिगड़ गयी
इस सर्कस में उछल उछल
शिकन से रूह भी अकड़ गयी

अब दिक्कत में ही ज़िंदा हैं
पिंजरे में फंसा दरिंदा है
कुछ सहमा सा, शर्मिंदा सा 
एक टूटा हुआ परिंदा है.

अब ना है आशा की कोई आस
ना ही मुक्ति की तलाश
अब तो हर शीशे से घूरती है
एक मुस्कुराती हुई लाश

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कैसी लगी? रोक लो, वर्ना और लिखता रहूँगा.

और पढ़ लो. तलाश, खामोश, Outrage का Culture 


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